रविवार, 4 नवंबर 2012

Oslo cinema hall

उस ज़माने में गांधीधाम में सिर्फ एक सिनेमा हॉल था.इसका नाम था ओस्लो .कच्छ के राजा जब नोर्वे गए तो वहां वहाँ के राजा ने उन्हें एक काले पत्थर से बनी मछुआरे की प्रतिमा भेंट की थी.कच्छ के राजा ने जब  गांधीधाम में सिनेमा हालॅ बनाया तो उसका नाम ओस्लो रखा.सिनेमा हालॅ के सामने उन्होंने मछुआरे की प्रतिमा स्थापित की थी.यह सिनेमा  हालॅ  शहर से और खास कर हमारे घर से काफी दूर था.इस सिनेमा  हॉल में मैंने सबसे पहले अपने जीवन की प्रथम इंग्लिश मूवी "House of wax" देखी थी.उसके बाद देखी थी "काबुलीवाला".दोनों पिक्चरों की पूरी कहानी मुझे आज भी याद है.काबुली वाला  के दो गाने मैंने उन दिनों ही पुरे पुरे याद कर लिए थे ,आज भी कभी कभी ये गाने आँखे नम कर देते हैं.एक तो "गंगा आये कहाँ से ,गंगा जाये कहाँ रे ",दूसरा "ऐ मेरे प्यारे वतन ,ऐ मेरे बिछुड़े वतन".इस के बाद मैंने देखी "दोस्ती',यह भी अपने आप में एक बेहतरीन मूवी थी.अब तक आप यह तो समझ ही गए होंगे की हमें चुनिन्दा फ़िल्में ही देखने दी जाती थी.जहाँ रेलवे कॉलोनी ख़त्म होती थी,उसके बाद एक नाला था .वहां एक बहुत बड़ा बाज़ार था जिसका नाम था "खन्ना मार्किट ".यहाँ ओस्लो में चल रही व आने वाली फिल्मों के पोस्टर लगाये जाते थे .जब में कक्षा ६ में पढता था तब "संगम" पिक्चर आई थी.इसके गानों ने धूम मचा दी थी.जब यह पिक्चर ओस्लो में लगी तो काफी लम्बे समय तक चली.घर के बड़े इसे देख आये थे और तारीफों के पुल बाँधते थे तो रात को नींद नहीं आती .सपनों में पोस्टर और सुनी सुनाई कहानी घूमती रहती.एक दो बार रेलवे क्लब की तरफ से रेलवे स्टेशन की छत पर भी पिक्चर दिखाई गयी थी.वहां बच्चे आगे निचे बैठे थे और बड़े पीछे मुड्डों पर.जब एक जीप तेजी से चलती हुई दर्शकों  की तरफ आती है तो पहली पंक्ति में बैठे बहुत से बच्चे उठ कर भाग गए थे.सिनेमा  की यह दीवानगी बरक़रार है.और क्या देखना है यह स्वाद बचपन में ही चख लिया था.

बुधवार, 31 अक्तूबर 2012

Kandla Port

कांडला ,कच्छ की खाड़ी में बसा एक छोटा सा प्राकृतिक बंदरगाह है.गांधीधाम छोड़े बाद मैंने  इसे कभी नहीं देखा इसलिए मेरी स्मृति में बना चित्र पचास साल पुराना है.पोर्ट पर उतरने वाला सामान गुड्स ट्रेन के माध्यम से गंतव्य तक पहुँचाया जाता था.अतः रेलवे के द्रष्टिकोण से यह एक महत्वपूर्ण स्टेशन था.पापा मुझे कई बार अपने साथ ले जाते थे और पूरा बंदरगाह घुमा कर दिखाते थे.अमेरिका की दो कम्पनीयों से  पेट्रोल आयात किया जाता था.कॉलटेक्स व इस्सो.अमेरिका की दो स्टेट कैलिफ़ोर्निया और टेक्सास को मिला कर कॉलटेक्स बना था.इस्सो (esso) का मतलब था एवरी सैटरडे सन्डे ऑफ .बाद में पता चला यह फुल फॉर्म एक मजाक था. इन कंपनियों द्वारा मंगाया गया पेट्रोल यन्त्र चालित तरीके से आयल टैंकर जहाजों से बहुत बड़ी टंकियों में खाली किया जाता था.फिर इन टंकियों में से रेलवे के  आयल कंटेनर गुड्स ट्रेन में भरा जाता था.इन गुड्स ट्रेन के  आयल टैंकर्स का रख रखाव एक तकनिकी मुद्दा था जिसमें मेरे पापा को महारत हासिल थी.उन्होंने मुझे बताया था की पेट्रोल से भरा टैंकर बहुत खतरनाक होता है इसीलिए बोगी पर "हाइली इन्फ्लेमेब्ल " व "Not to be loose shunted" लिखा जाता था. खाली आयल टैंकर में  भी बहुत जोखिम है क्योंकि तेल की गैस अन्दर रह जाती है जिससे टैंकर एक बम की तरह हो जाता है,जो जरा से स्पार्क के संपर्क में आने से फूट सकता है. तेल कंपनियों को खाली टैंकर समय पर उपलब्ध करवाना मैनेजमेंट में आजकल सिखाई जा रही इन्वेंटरी कन्ट्रोल की तरह ही था.इसके अलावा खाद्य तेल भी आयात होता  था,जिसे  स्वचालित मशीनों से टिन के डिब्बों में भरा जाता था.यह सब मेरे लिए अत्यंत कौतुहल भरा था.इसके अलावा पोर्ट पर  काफी तादाद में गेहूं उतरता था .मुझे बताया गया की यह गेहूं अमेरिका से PL ४८० के तहत प्राप्त हुआ है .यह गेहूं अमेरिका में सूअरों की खिलाया जाता है. हिंदुस्तान में इसे भारतीय खाद्य निगम के माध्यम से आयात करके राशन की दुकानों पर गरीबों के लिए सस्ती दरों पर उपलब्ध करवाया जायेगा.बंदरगाह पर गेहूं की बोरियों को रखने के गौदाम बने हुए थे.कुछ समय तक गेहूं की बोरियों पर से कूदा फांदी का आनंद भी में जरुर लेता था.वहीँ मैंने पहली बार रेडार देखा था ,पापा ने मुझे अन्दर ले जाकर पूरी प्रणाली भी समझाई थी.बाद में मैंने भी अपने बच्चों को पर्यटन के साथ साथ शिक्षा देने का प्रयास किया.पानी के बड़े जहाज केई दिन तक बंदरगाह पर रुकते थे ,तब उसका क्रू गांधीधाम जाके बिसिट के मैदान में फुटबाल खेला करता था.पापा ने अनेक बड़े जहाज मुझे दिखाए थे ,हर तल्ले पर अलग व्यवस्थाएं होती है.कप्तान का केबिन बहुत खास होता था.मुझे बताया गया की कप्तान कभी जहाज नहीं छोड़ता अगर जहाज डूबता है तो वो भी उसके साथ डूबता है.उसके कमरे में एक हीरे की अगुन्ठी होती है जिसे चाट कर वह अपने प्राण दे देता है.हालाँकि वो हीरे की अगुन्ठी मैंने कभी नहीं देखी.

मंगलवार, 30 अक्तूबर 2012

I became Book lover

रेलवे बिसिट की लाइब्रेरी से जो उपन्यास मैंने सबसे पहले इशू करवाया उसका नाम था "उल्टा वृक्ष ". उस समय मैं चौथी कक्षा में पढता था.उसकी कहानी मुझे आज भी याद है.मेरी उम्र का ही एक बच्चा एक बीज बोता है जिससे एक उल्टा वृक्ष पैदा होता है.पूरा पेड जमीन के अन्दर है.बच्चा पेड़ के सहारे नीचे उतरता है.हर शाखा पर एक नया शहर है जिसकी अपनी अलग ही संस्कृति है.वास्तव में यह एक दर्शन था.इसके बाद में पंचतंत्र की कहानियां पढ़ी.इस तरह मुझे बचपन से गहरे भाव वाली पुस्तकों का शौक लग गया जो अब ५८ वर्ष की उम्र तक कायम है.अब तक मैं लगभग तीन हजार पुस्तकों का अध्ययन कर चूका हूँ .इससे पहले हमारे घर पर बच्चों के लिए "चंदा मामा" और "पराग" पत्रिकाएं मंगाईजाती थी जिसका एक एक शब्द हम लोग चाट जाते थे.हर कहानी को कई कई बार पढ़ा जाता था.माँ को जासूसी उपन्यास का शौक था,पर हम बच्चों को पढने की मनाई थी .फिर भी ऐसा कोई नावेल नहीं था जो मैंने चोरी छिपे न पढ़ डाला हो.कक्षा चार से सात तक ,जब तक मैं गांधीधाम में था ,मैंने रेलवे बिसिट की लाइब्रेरी को खंगाल डाला.इसके अलावा वंहा पुरानी मैगज़ीन भी इशू की जाती थी.इस तरह से मैंने किताबों की दुनिया में कदम रख दिया.इसके फायदे और नुकसान दोनों हुए .फायदा तो यह हुआ की धीरे धीरे दुनिया के हर विषय की जानकारी हो गयी.नुकसान यह हुआ की सिर्फ किताबे ही मेरी दोस्त बनकर रह गयी.वास्तविक दुनिया से मेरा संपर्क कट सा गया.मैं अधिकांश समय एक कल्पना लोक में विचरण करने लगा.सन २००० के बाद इन्टरनेट की दुनिया ने तो यथार्थ जगत से जैसे मेरा नाता ही तुडवा दिया और यह कल्पना लोक ही मेरा जीवन बन गया.

सोमवार, 29 अक्तूबर 2012

Railway Bisit Institute,Gandhidham

रेलवे बिसिट इंस्टिट्यूट एक तरह का क्लब था जहाँ रेलवे के अधिकारी एवं कर्मचारीयों के लिए खेल कूद व पुस्तकालय की सुविधा होती थी।बहुत बडा सा खेल का मैदान था जहाँ फुटबॉल और होकी के मैच होते थे।क्रिकेट कम खेला जाता था।मैदान के पास एक बड़े हॉल में इन डोर खेल होते थे जिनमे टेबल टेनिस और केरम सब से ज्यादा लोकप्रिय थे।एक टिन शेड में सांस्कृतिक कार्यक्रम और सिनेमा दिखाए जाने की व्यवस्था थी। फ़िल्में मंगाना व टिकट बेच कर उन्हें दिखाने का काम हमारे घर से ही संचालित होता था।यह मेरी माँ की enterpeneurship का ही कमाल था।उन दिनों मैंने "अपलम चपलम ","तांत्या टोपे " आदि फिल्मे देखी थी जिनका मेरे बाल मन पर गहरा प्रभाव पड़ा और मैंने मन ही मन बड़ा होकर फ़िल्में बनाने की ठान ली।उस समय में चौथी कक्षा तक पहुँच गया था।बहुत साल बाद जब मेरी डाक्यूमेंट्री फिल्म "माइंसआर माइन " त्रिचुर के अन्तर्राष्ट्रीय फिल्म समोराह में दिखाई गयी और बतौर निदेशक मैंने उस समारोह में भाग लिया तब मुझे बहुत ख़ुशी हुई।
जब मैंने स्कूल की घटना घर पर बताई तो मेरा स्कूल बदल दिया गया।यह स्कूल रेलवे बिसिट केपास रेलवे का ही बड़ास्कूल था जहाँ कक्षा चारतक पढाई की व्यवस्था थी।वहां बैठाया तो दरी पर जाता था पर हर विध्यार्थी को गाँधी डेस्क मिलती थी जो मुझे बहुत पसंद थी।यहाँ के प्रधान अध्यापक माधो सिंह जी थे जो अनुशासन प्रिय थे ,पढाई भी अच्छी थी अतः धीरे धीरे मेरी पढाई में रूचि जाग्रत होती गयी।और कक्षा चार में तो मैंने प्रथम स्थान प्राप्त किया।माधो सिंह जी हमारे घर के सामने से जा रहे थे तब मेरी माँ ने उन्हें बुला कर मिठाई खिलाई थी और सर ने मेरी प्रसंशा की थी।मौखिक परीक्षा में मेरे धडाधड जवाब देने से वे बड़े प्रभावित हुए थे।बहुत साल बाद जब R .A .S .की लेखा सेवा में मेरा चयन हुआ वह भी मौखिक परीक्षा में मेरे प्रदर्शन की वजह से ही हुआ।

शुक्रवार, 26 अक्तूबर 2012

पहली कक्षा

गांधीधाम की रेलवे कॉलोनी के क्वार्टर नंबर 100 A में मैंने अपने बचपन के स्वर्णिम वर्ष गुजारे.वेस्टर्न रेलवे का एक महत्वपूर्ण स्टेशन है गांधीधाम ,और यहाँ की रेलवे कॉलोनी भी बहुत बड़ी और व्यवस्थित थी.सडकें ,बगीचे ,अस्पताल ,स्कूल ,बिसिट,पार्क सभी कुछ था वंहा.हम सभी भाई बहनों को स्कूल भेजने की तैयारी की गयी.चूँकि में पांच साल का हो गया था मुझे हमारे घर के पीछे रेलवे की स्कूल में पहली कक्षा में प्रवेश दिलाया गया.कुछ दिन तो में उत्साह से स्कूल गया पर शीघ्र ही मुझे शिक्षा की नि :सारता का आभास हो गया और मैने स्कूल न जाने की ठान ली.घर के बहार बगीचे के एक कोने में पापा ने गन्ने का छोटा सा खेत बना रखा था.स्कूल जाने के लिए घर से विदा लेकर में गन्ने के खेत में छुप जाता.पर मेरा मन वहां नहीं लगता ,चोरी पकड़ी जाती और शुरू हो जाता एक दौर -पहले प्यार से मनाना ,फिर लालच देना ,शिक्षा का महत्व बताना और अंत में कान पकड़ के डांट लगाना.अंतत २ रूपये प्रतिमाह में सौदा तय हुआ और जब पहली बार २ रूपये का नोट हाथ में आया तो मेरी ख़ुशी का पारावार नहीं रहा.यह बात  अलग है की शाम तक वो नोट बहला फुसला कर सुरक्षा के नाम पर  मुझसे हथिया लिया गया.यह आश्वासन दिया गया की हर महीने की पहली तारीख को ये पैसे मम्मी के पास मेरे खाते में जमा होते रहंगे.शर्त यही थी की स्कूल रोज जाना पड़ेगा.चूँकि पहली कक्षा का अधिकांश हिस्सा इसी मान मनोव्वल में गुजर गया था अतः पापा के इस आश्वासन पर ,की इसे घर पर पढाया जायेगा मुझे बिना परीक्षा के दूसरी कक्षा में बैठा दिया गया.बिना पहली कक्षा पास किये दूसरी कक्षा में बैठाने से दूसरी की अध्यापिका मुझसे नाराज सी थी.मेरी खिंचाई करती जो मुझे कतई गवारा ही नहीं था.दिखने में वो अच्छी थी इसलिए में सहन कर रहा था.सुन्दरता का प्रभुत्व हम बचपन से ही स्वीकार कर लेते हैं.स्कूल में लघुशंका के लिए जाना होता तो हाथ की मुठी बंद कर के कनिष्ठा ऊँगली दिखाई जाती थी.एक दिन मैंने इजाजत मांगी पर मेम ने कोई ध्यान ही नहीं दिया.बहुत दिनों से उपेक्षित होने का तनाव अपनी चरम सीमा पर पहुँच गया था सो मैने आव देखा न ताव और मेम की कीमती साड़ी को तरबतर कर दिया.अब तो मेम का पारा सांतवे आसमान पर था .पर पापा के ऊँचे पद पर होने से मार पिटाई  से बच गए.और में अपना बस्ता उठा के ऐसा भागा की पलट के फिर कभी उस स्कूल की तरफ नहीं देखा.  

सोमवार, 7 सितंबर 2009

पालनपुर, मारवाड़ जंक्शन के अल्प विराम


पालनपुर गुजरात राज्य का हिस्सा है अतः वंहा की पढ़ाईलिखाई गुजराती भाषा में होती थी मेरे सभी बड़े भाई बहनों के अध्ययन का तारतम्य टूट गया ,सोभाग्य से उन दिनों चार साल के बच्चे को स्कूल भेजने का प्रचलन नहीं था अत: मुझे कोई कष्ट नही हुआ अलबत्ता बहुत दिनों तक अम्मा और छोटे भाई को याद करता रहा.
पालनपुर की जो प्रमुख घटना मुझे याद हैं उनमें घर के सामने का वो पेड़ है जिसके फल को हम बन्दर की रोटी कहते थे इस पेड़ का असली नाम मुझे बोटनी में M.Sc.करने के बाद भी ज्ञात नहीं है हालाँकि में उसे देख कर पहचान जरुर सकता हूँ.
इसके अलावा मुझे याद है की घर से कुछ दूर एक तालाबथा जहाँ हम मछलियों को चुगाने के लिए कभी चने और कभी गेहूं के आटे की गोलियां बना कर ले जाते.
पालनपुर में हमारे बंगले के सामने से एक गोरी मेम छाता लगाकर निकलती थी . वो लगभग ३० वर्ष की कोई एंग्लो इंडियन भद्र महिला थी .पता नहीं मुझे किसने सिखाया था पर उसे देखते ही मैं चिल्लाने लगता कि मुझे इससे शादी करनी है .वो भी कभी कभी मेरी तरफ देख कर मुस्करा देती थी .मैं उस समय चार साल का था.वह मुस्कान मुझे आज भी याद है .
पालनपुर में शिक्षा का माध्यम गुजराती होने कि वजह से प्रह्लाद भाई को आबू रोड अ़प-डाउन करना पड़ता था और श्याम व कमल भाई को अजमेर में ही एक कमरे के फ्लैट में रखा गया .
आखिर पापा ने मम्मी और हम बच्चों को मारवाड़ जंक्शन में रखने का निर्णय लिया.थाने के पास एक किराये के मकान में हम रहने लगे यह १९५९ की बात है. तब में पाँचवे वर्ष में प्रवेश कर चुका था. लगभग एक वर्ष हम यहाँ रहे.परिवार के बिखर जाने से सभी परेशान थे.पापा बच्चों कि पढाई को लेकर बहुत सचेत थे और उस काल खंड में सबसे बुरा प्रभाव शिक्षा पर ही पड़ रहा था.
मारवाड़ जंक्शन में हमारे पडोसी थे डेविड परिवार.बहुत सज्जन और मददगार परिवार था यह.उनके अहसानों का बदला तो नहीं चुकाया जा सकता पर थोडी बहुत मदद इस परिवार कि मैंने पाली मारवाड़ में मेरी फर्स्ट पोस्टिंग कोषाधिकारी पाली के समय कि थी .
दुनिया बहुत छोटी है.कुएँ से कुँआ नहीं मिलता पर आदमी से आदमी जरूर मिलता है.
उस समय मेरे मामाजी श्री गोपीकिशन नागौरी जो कि रेलवे में थे ,मारवाड़ में ही पोस्टेड थे और हमारे घर से कुछ दूर ही रेलवे के क्वाटर में रहते थे. मेरी शामें अक्सर वहीँ गुजरती और मामाजी के लड़के नंदू उर्फ़ नन्द किशोर बंसल तथा नवल किशोर बंसल मेरे अच्छे दोस्त बन गए.अब मामाजी नहीं रहे पर नंदू और नवल सोजत रोड में रहते हैं और आज भी मेरे अच्छे मित्र हैं. पता नहीं वो साल कब और कैसे गुजर गया.पापा का तबादला गांधीधाम हो गया.और एक बार फिर गांधीधाम में पूरा परिवार एक ही छत के नीचे आ गया.

शुक्रवार, 17 जुलाई 2009

मेरी कहानीःअजमेर से शुरुआत

मैं विपिन बिहारी गोयल पुत्र स्वर्गीय श्री कुञ्ज बिहारी गोयल उम्र ५५ वर्ष पेशा राजस्थान लेखा सेवा साकिन अजमेर फिलहाल चोपासनी हाऊसिंग बोर्ड ,जोधपुर ईश्वर को हाजिर नाज़िर मान कर पूरे होशो हवाश में अपनी कहानी लिख रहा हूँ .अगर इसमें आपका जिक्र है तो ये आपकी खुश किस्मती है. मैंने कुछ नागवार लम्हों और लोंगों को नजरअंदाज किया है और कुछ मामूली लगने वाली बातों को तब्जजोह दी है .क्या करूँ मैं हूँ ही ऐसा.आप पढेंगे तो खुद समझ जायँगे.


कहानी तो वो होती है जिसमें कल्पना के रंग होते है,रोचकता होती है.कौन चाहेगा ऐसी कहानी पढना जिसमें सब कुछ फीका फीका हो कहानी की शुरुआत १९ जून १९५४ से होती है जब अजमेर में तांगे यातायात का मुख्य साधन थे परन्तु उस दिन सडके वीरान थी सारे तांगे कोतवाली की तरफ जा रहे थे .माजरा यह था कि अजमेर पुष्कर रोड पर एक सूखे कुऍ में लोहे के बक्से में एक लाश मिली थी॓ लाश की पहचान एक दुकान के मुनीम के रुप मे हुई थी आखिर यह बक्सा कुऐ तक कैसे पहुंचा बस इसी तहकिकात के लिये सभी तांगेवालों को थाने में बुलाया गया था

जब कोइ तांगे वाला अस्पताल चलने को तैयार नही हुआ तो सामने के कोठारी भवन में रहने वाले भाईसाह्ब से आग्रह किया गया और इस तरह अपने जन्म से कुछ समय पहले में कार से अस्पताल पहुचां ।हम लोग उस समय पाल बिछला पर बने रेल्वे के बंगले में रह्ते थे,जहां मेरा सबसे मासुम बचपन बीता।

सन १९७३ में इसी बंगले में पहली बार उस लडकी से मिला जो बाद में मेरी जीवन संगनी बनी ।

बाद में सन १९७५ में इसी बगंले में पापा का सेवा निवॄति समारोह हुआ था पर तब तक पापा पालनपुर,आबु रोड,मारवाड जंक्शन,गांधीधाम, काडंला की परिकर्मा कर चुके थ॓।

बहरहाल मूनीम की हत्या के सभी मुलजिम पकडे गये ।हत्या क्यौं हुइ,किसने की,और इसका क्या अंजाम हुआ यह एक अलग कहानी है ।जिसे पापा से अनेक बार विस्तार से सुनने के बाद भी कूछ अंश ही याद है॓।मसलन हत्या अमीर घराने के तीन नवयुवकों ने पैसे के लालच मैं कि थी । उनमें से एक सोगानीजी का लडका था जो पापा के परिचित थे । उसे उच्चतम न्यायालय से फांसी की सजा हूई थी परन्तु माननीय राष्टपति महोदय ने दया की प्रार्थना पर उम्र कैद में बदल दिया था ।

जन्म के बाद के चार वर्ष मैंने उसी बंगले में गुजारे जो मेरे जीवन के बहुत बेह्तरीन साल थे बंगले के बाहर एक चाय वाले की केबीन थी जंहा चाय के अलावा टोस्ट और नमकीन बिस्कीट भी मिलते थे ।

चाय की केबिन के मालिक थे रामू काका ।और उसके सामने था स्टूडीयो एक्सेल्सियर जिसके मालिक थे खन्ना सिंह उर्फ छोटे भाई ।बहूत छोटा होते हुए भी मूझे सारी घटनाऐ इस तरह याद हैं जैसे कल की बात हो।मेरे परदादा बद्रिलाल गोयल ऐरनपुरा छावनी में कन्टोन्मेन्ट कमेटि के चेयरमेन थे।धार्मिक पुस्तकॉ के अध्ययन एवं विवेचन के लिये उन्हें वृन्दावन में धर्म मनिषि कि उपाधि से अलंकृत किया गया था ।उस जमाने में दो घोडों की फिटिन में सवारी करते थे।जो की हवेली के सामने वाले बाडे में खडी रहती थी॓।उनके दो पुत्र हुऐ रामप्रताप जी एवं मोतीलाल जी ।रामप्रताप जी के एक पुत्र हुआ जगदीश प्रशाद जी एवं मोतीलाल जी के दो पुत्र हुए कुन्ज बिहारी लाल जी एवं मोहन लाल जी ।

छोटे भाई और अम्मा ने मुझे अपने बच्चों से बढ कर प्यार किया।मेरी हर जिद को पूरा किया जाता पर साथ ही अच्छी आद्तें भी सिखाई जाती थी ।ब्रश करने से लेकर सच बोलने तक ।खन्ना परिवार राजपूत था और परिवार के सभी सद्स्यों को मुझ से यह बुलवाने का शौक था कि मैं भी राजपुत हुं । इसके लिये मुझे तरह तरह के प्रलोभन भी दिये जाते थे॓। छोटे भाई की लडकी का नाम था निन्नी ।वो उस समय जब मैं तीन चार साल का था लगभग बीस साल की थी । जहां तक मुझे याद है वे बहुत ही सुदंर थी ।मुझे साईकिल पर बिठा कर अपनी सहेली के घर ले जाती थी जिसके यहां शहतूत का पेड था ।

छोटे भाई के परिवार से हमारे परिवार की अन्तरगंता से अगर कोई नये समीकरण उपजे हों तो मैं उससे नितान्त अनभिज्ञ था क्यों की उस समय तक मुझे दुनियादारी की कोई समझ नहीं थी ।कुछ समय बाद पापा की बदली पालनपुर हो गयी और हमारा पूरा परिवार बोरिया बिस्तर समेट कर पालनपुर के लिये कूच कर गया ।

 
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