रविवार, 4 नवंबर 2012

Oslo cinema hall

उस ज़माने में गांधीधाम में सिर्फ एक सिनेमा हॉल था.इसका नाम था ओस्लो .कच्छ के राजा जब नोर्वे गए तो वहां वहाँ के राजा ने उन्हें एक काले पत्थर से बनी मछुआरे की प्रतिमा भेंट की थी.कच्छ के राजा ने जब  गांधीधाम में सिनेमा हालॅ बनाया तो उसका नाम ओस्लो रखा.सिनेमा हालॅ के सामने उन्होंने मछुआरे की प्रतिमा स्थापित की थी.यह सिनेमा  हालॅ  शहर से और खास कर हमारे घर से काफी दूर था.इस सिनेमा  हॉल में मैंने सबसे पहले अपने जीवन की प्रथम इंग्लिश मूवी "House of wax" देखी थी.उसके बाद देखी थी "काबुलीवाला".दोनों पिक्चरों की पूरी कहानी मुझे आज भी याद है.काबुली वाला  के दो गाने मैंने उन दिनों ही पुरे पुरे याद कर लिए थे ,आज भी कभी कभी ये गाने आँखे नम कर देते हैं.एक तो "गंगा आये कहाँ से ,गंगा जाये कहाँ रे ",दूसरा "ऐ मेरे प्यारे वतन ,ऐ मेरे बिछुड़े वतन".इस के बाद मैंने देखी "दोस्ती',यह भी अपने आप में एक बेहतरीन मूवी थी.अब तक आप यह तो समझ ही गए होंगे की हमें चुनिन्दा फ़िल्में ही देखने दी जाती थी.जहाँ रेलवे कॉलोनी ख़त्म होती थी,उसके बाद एक नाला था .वहां एक बहुत बड़ा बाज़ार था जिसका नाम था "खन्ना मार्किट ".यहाँ ओस्लो में चल रही व आने वाली फिल्मों के पोस्टर लगाये जाते थे .जब में कक्षा ६ में पढता था तब "संगम" पिक्चर आई थी.इसके गानों ने धूम मचा दी थी.जब यह पिक्चर ओस्लो में लगी तो काफी लम्बे समय तक चली.घर के बड़े इसे देख आये थे और तारीफों के पुल बाँधते थे तो रात को नींद नहीं आती .सपनों में पोस्टर और सुनी सुनाई कहानी घूमती रहती.एक दो बार रेलवे क्लब की तरफ से रेलवे स्टेशन की छत पर भी पिक्चर दिखाई गयी थी.वहां बच्चे आगे निचे बैठे थे और बड़े पीछे मुड्डों पर.जब एक जीप तेजी से चलती हुई दर्शकों  की तरफ आती है तो पहली पंक्ति में बैठे बहुत से बच्चे उठ कर भाग गए थे.सिनेमा  की यह दीवानगी बरक़रार है.और क्या देखना है यह स्वाद बचपन में ही चख लिया था.

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