शुक्रवार, 26 अक्तूबर 2012

पहली कक्षा

गांधीधाम की रेलवे कॉलोनी के क्वार्टर नंबर 100 A में मैंने अपने बचपन के स्वर्णिम वर्ष गुजारे.वेस्टर्न रेलवे का एक महत्वपूर्ण स्टेशन है गांधीधाम ,और यहाँ की रेलवे कॉलोनी भी बहुत बड़ी और व्यवस्थित थी.सडकें ,बगीचे ,अस्पताल ,स्कूल ,बिसिट,पार्क सभी कुछ था वंहा.हम सभी भाई बहनों को स्कूल भेजने की तैयारी की गयी.चूँकि में पांच साल का हो गया था मुझे हमारे घर के पीछे रेलवे की स्कूल में पहली कक्षा में प्रवेश दिलाया गया.कुछ दिन तो में उत्साह से स्कूल गया पर शीघ्र ही मुझे शिक्षा की नि :सारता का आभास हो गया और मैने स्कूल न जाने की ठान ली.घर के बहार बगीचे के एक कोने में पापा ने गन्ने का छोटा सा खेत बना रखा था.स्कूल जाने के लिए घर से विदा लेकर में गन्ने के खेत में छुप जाता.पर मेरा मन वहां नहीं लगता ,चोरी पकड़ी जाती और शुरू हो जाता एक दौर -पहले प्यार से मनाना ,फिर लालच देना ,शिक्षा का महत्व बताना और अंत में कान पकड़ के डांट लगाना.अंतत २ रूपये प्रतिमाह में सौदा तय हुआ और जब पहली बार २ रूपये का नोट हाथ में आया तो मेरी ख़ुशी का पारावार नहीं रहा.यह बात  अलग है की शाम तक वो नोट बहला फुसला कर सुरक्षा के नाम पर  मुझसे हथिया लिया गया.यह आश्वासन दिया गया की हर महीने की पहली तारीख को ये पैसे मम्मी के पास मेरे खाते में जमा होते रहंगे.शर्त यही थी की स्कूल रोज जाना पड़ेगा.चूँकि पहली कक्षा का अधिकांश हिस्सा इसी मान मनोव्वल में गुजर गया था अतः पापा के इस आश्वासन पर ,की इसे घर पर पढाया जायेगा मुझे बिना परीक्षा के दूसरी कक्षा में बैठा दिया गया.बिना पहली कक्षा पास किये दूसरी कक्षा में बैठाने से दूसरी की अध्यापिका मुझसे नाराज सी थी.मेरी खिंचाई करती जो मुझे कतई गवारा ही नहीं था.दिखने में वो अच्छी थी इसलिए में सहन कर रहा था.सुन्दरता का प्रभुत्व हम बचपन से ही स्वीकार कर लेते हैं.स्कूल में लघुशंका के लिए जाना होता तो हाथ की मुठी बंद कर के कनिष्ठा ऊँगली दिखाई जाती थी.एक दिन मैंने इजाजत मांगी पर मेम ने कोई ध्यान ही नहीं दिया.बहुत दिनों से उपेक्षित होने का तनाव अपनी चरम सीमा पर पहुँच गया था सो मैने आव देखा न ताव और मेम की कीमती साड़ी को तरबतर कर दिया.अब तो मेम का पारा सांतवे आसमान पर था .पर पापा के ऊँचे पद पर होने से मार पिटाई  से बच गए.और में अपना बस्ता उठा के ऐसा भागा की पलट के फिर कभी उस स्कूल की तरफ नहीं देखा.  

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