रेलवे बिसिट इंस्टिट्यूट एक तरह का क्लब था जहाँ रेलवे के अधिकारी एवं कर्मचारीयों के लिए खेल कूद व पुस्तकालय की सुविधा होती थी।बहुत बडा सा खेल का मैदान था जहाँ फुटबॉल और होकी के मैच होते थे।क्रिकेट कम खेला जाता था।मैदान के पास एक बड़े हॉल में इन डोर खेल होते थे जिनमे टेबल टेनिस और केरम सब से ज्यादा लोकप्रिय थे।एक टिन शेड में सांस्कृतिक कार्यक्रम और सिनेमा दिखाए जाने की व्यवस्था थी। फ़िल्में मंगाना व टिकट बेच कर उन्हें दिखाने का काम हमारे घर से ही संचालित होता था।यह मेरी माँ की enterpeneurship का ही कमाल था।उन दिनों मैंने "अपलम चपलम ","तांत्या टोपे " आदि फिल्मे देखी थी जिनका मेरे बाल मन पर गहरा प्रभाव पड़ा और मैंने मन ही मन बड़ा होकर फ़िल्में बनाने की ठान ली।उस समय में चौथी कक्षा तक पहुँच गया था।बहुत साल बाद जब मेरी डाक्यूमेंट्री फिल्म "माइंसआर माइन " त्रिचुर के अन्तर्राष्ट्रीय फिल्म समोराह में दिखाई गयी और बतौर निदेशक मैंने उस समारोह में भाग लिया तब मुझे बहुत ख़ुशी हुई।
जब मैंने स्कूल की घटना घर पर बताई तो मेरा स्कूल बदल दिया गया।यह स्कूल रेलवे बिसिट केपास रेलवे का ही बड़ास्कूल था जहाँ कक्षा चारतक पढाई की व्यवस्था थी।वहां बैठाया तो दरी पर जाता था पर हर विध्यार्थी को गाँधी डेस्क मिलती थी जो मुझे बहुत पसंद थी।यहाँ के प्रधान अध्यापक माधो सिंह जी थे जो अनुशासन प्रिय थे ,पढाई भी अच्छी थी अतः धीरे धीरे मेरी पढाई में रूचि जाग्रत होती गयी।और कक्षा चार में तो मैंने प्रथम स्थान प्राप्त किया।माधो सिंह जी हमारे घर के सामने से जा रहे थे तब मेरी माँ ने उन्हें बुला कर मिठाई खिलाई थी और सर ने मेरी प्रसंशा की थी।मौखिक परीक्षा में मेरे धडाधड जवाब देने से वे बड़े प्रभावित हुए थे।बहुत साल बाद जब R .A .S .की लेखा सेवा में मेरा चयन हुआ वह भी मौखिक परीक्षा में मेरे प्रदर्शन की वजह से ही हुआ।
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